Wednesday, 28 October 2015

“मेरे मोबाइल!”

सुनो!
तुम बहुत छोटे से थे.
मगर भारी थे.
गदराया बदन था.
हर समय मैं तुम्हें अपने पास रखता था. खाते, पीते, सोते, उठते.
तुम्हारी अठखेलियाँ .... बारीकियाँ, धीरे – धीरे समझ आती चली गयीं.
तुमने मुझे अपनों के नज़दीक ला दिया.
मेरे गोलू बोलू.
कितनी बार लड़खड़ाए. मगर मजाल है कुछ हो जाये तुमको. चींटी मरा करती थीं.
मेरे प्यारे Qwerty.
तीज त्योहार के रिश्तों के पुल.

जैसे जैसे बड़े हुए. तुम्हारे अन्दर कितने परिवर्तन देखे. बदन फ़ौलादी से प्लास्टिक में बदलता दीखा. आकार बढ़ा, मगर हलके हो गए तुम.
तुम्हारी reach विश्व के हर कोने तक हो चली. बेतार ज़िन्दगी में नई कल्पनाएँ भर दीं तुमने.
कभी कभी nostalgic हो जाया करते थे तुम.
और समय बदला. उम्र के साथ रंगीन हो गए तुम.
तुम्हारा चेहरा बड़ा दिखने लगा.
अब तोतली भाषा के बजाए अपनी मातृ भाषा में बोलने लगे .
तुम चलायमान दिखने लगे.
आँखों देखा हाल कोई पाए तो तुमसे.
मेरे नरोत्तम पुरी थे तुम.
मेरे जसवंत सिंह बन गए.
मेरे लिए जगजीत / लता बन गए.
तुम्हारी अच्छाईयाँ / बुराईयाँ बस मेरे mood के हिसाब से दिखने लगीं.
हर समय तुम्हारा साथ इतना अच्छा लगने लगा कि अपनों से दूर रहने लगा.
मृगमरीचिका के पीछे भटकन ऎसी हुई कि फिर से रावण सीता को हरने लगा.

अब बताओ उम्र के इस दराज़ में, किस नए रूप में दिखोगे हमें.
क्या हमें तुम अकेला करोगे सभी से, या फिर, धरती से, अपनों से जोड़ोगे तुम.

मेरे मोबाइल. क्या ये इन्तिहाँ है तेरी. क्या ये इन्तेकाम है तेरा.
बता दे, तो मैं संभल जाऊं.
काम छूटे हैं जो. उनको कर पाऊं.

........ राजेश सक्सेना “रजत”

10.07.15


Wednesday, 16 April 2014

गीत - "बिछुड़न सजना से"



जाने कैसी मन में उसके बातें चलती होंगी,
जब बिछुड़न सजना से हो तो साँसें खलती होंगी।

कितने दिन के बाद वो आएगा घर कौन बताए,
उसके बिन हर पल दिन रातें काटा करनी होंगी।

आँखों में आँसू भर कर के उसने भेजा होगा,
आँखों से ओझल होने तक इक टक तकती होगी।

अंदर कर औंधे मुँह तकिये में मुँह दबाकर,
जब तक थक कर आँख लगी तब तक वह सिसकी होगी।

अपनी इस हालत पर उसने किस को कोसा होगा,
बच्चों पर वह खीझ दिखा गुस्से में झिड़की होगी।

.......  राजेश सक्सेना "रजत"
                  13.04.14



Sunday, 20 October 2013

गीत - "नभ"


"इस नभ में जितने तारे हैं,
सब लगते सबको प्यारे हैं,
टिम - टिम करते हैं ये ऐसे,
कुछ राज़ बताने वाले हैं।

नभ काली मिट्टी का बर्तन,
चमकें बालू कण रातों को,
चंदा जैसे पैबन्द जड़ा,
ढ़लते ही रात उजाले हैं।

ये नभ है या वृदावन है,
कृष्णा का रूप धरे चंदा,
तारे सब गोपी बन कर के,
बस रास रचाने वाले हैं।"

 राजेश सक्सेना "रजत"
 07.10.13

Monday, 26 August 2013

ग़ज़ल – “बरसात में”

"खुली बरसात में तुमसे मिलें तो क्या मज़ा आये,
खुले अंदाज़ में तुमसे कहें तो प्यार बढ़ जाए।

कभी हो तेज बारिश हो कभी रिमझिम फुहारों सी,
खुले गेसू जो भीगें तन लिपट कर साँप  बल खाए।

चले हौले हवा जब भी बदन में रोंगटे उठते,
तुम्हारी हर छुअन हँस कर मुझे पागल करे जाए।

दुपट्टा डालती सर पर दबाती मुँह  से तुम अपने,
शरम आँखों से छलके औ तबस्सुम लब तेरे छाए।

नहीं मन है नहीं करता की तुम अब दूर मुझसे हो,
कहो क्या मन तुम्हारे है बसा मुझको भी दिख पाए।"

....... राजेश सक्सेना "रजत"
                    20.07.13


Tuesday, 2 July 2013

सम्पूर्ण आलेख - "प्रेम का अंतिम लक्ष्य क्या..............सेक्स?"

प्रेम का अंतिम लक्ष्य क्या..............सेक्स?

कार्ल मार्क्स की विवेचना से हर कोई प्रबुद्ध व्यक्ति परिचित होगा। माँ और शिशु के बीच के सुन्दरतम रिश्ते में भी एक ऐसी विवेचना जो सोचने पर मजबूर करती है कि उस प्रेम का आधार भी कुछ कल्पना से परे हो सकता है।

भारतीय परिपेक्ष्य में उस सन्दर्भ को आगे न बढ़ाते हुए, मैं मुख्य विषय की ओर चलता हूँ। "प्रेम" जिससे हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में जीवन के सोपान में आकर्षित हुआ है। प्रेम अर्थात लगाव अर्थात मोह।

प्रेम मुख्यतः भावनात्मक होता है। भाव जो धनात्मक दृष्टिकोण से पनपते हैं।

कोई वस्तु या व्यक्ति जब हमें भाती / भाता है अर्थात अच्छी लगती / लगता है तो मन / ह्रदय में लगाव या मोह पैदा होता है। कोई भाता तब है, जब वो हमारे अवचेतन मन में पड़ी तुलनात्मक छवि के करीब होता है। यह छवि चाहें किताबों में पढ़कर बनी हो या सुनी हुई कहानियों से पनपी हो या गाहे-बगाहे बीते जीवन में, जो किरदार, अपनी छाप, मन मस्तिष्क पर छोड़ गए हों, उनसे बनी हो। उस छवि का बनना बिगड़ना बुद्धि  विवेक पर निर्भर करता है। बुद्धि  विवेक, व्यक्ति विशेष की विश्लेष्णात्मक प्रतिभा या समाज से मिले तार्किक विश्लेषण से प्रभावित होते हैं। इन सब में अच्छे साहित्य और अच्छी संस्कृति  का बड़ा योगदान रहता है। ये अंततः मन को सीमित करते हैं जो छवियों को उकेरने में माहिर है।

तो छवि बनती बिगड़ती रहती है। लगाव कम-ज्यादा होता है। मोह घटता बढ़ता रहता है। अर्थात प्रेम प्रबल या क्षीण होता रहता है।

दूसरी तरफ प्रेम शारीरिक होता है एक स्वाभाविक इश्वर प्रदारेण प्रक्रिया है ये। यह एक तरह सेशरीर में उत्पन्न रासायनिक क्रिया है जिसमें अवचेतन मन में बसी  छवि एक उत्प्रेरक का काम करती है। 

संस्कार, उस श्रंखला बद्ध रासायनिक क्रियाओं के नियंत्रक स्वरुप होते हैं। क्रियाओं की गति को कम करने या संतुलित रखने में इनका बड़ा योगदान रहता है। जिसका पलड़ा भारी होगा, क्रिया उसी ओर कूच करेगी। अंततः भाव, क्रियाएँ व विचार प्रभावित होते हैं।

शरीर में टेस्टास्टरोन (testosterone) रसायन का यदि वैज्ञानिक गण, समय के साथ ग्राफ दर्शाएँ तो इस शारीरिक प्रेम का सही पक्ष उजागर होगा और उसके विश्लेषण से नए निष्कर्ष निकल सकते हैं, ऐसा मेरा मानना है।

अब मानव शरीर में इन दोनों प्रकार के प्रेम में निरंतर हर पल द्वंद चलता रहता है - शारीरिक प्रेम व भावनात्मक प्रेम। जो जीता वही सिकंदर। परिणाम आप स्वयं जान सकते हैं। ऐसे में बुद्धि व विवेक, उनमें संतुलन बनाने का भरसक प्रयास करते हैं। अब यदि किसी में बुद्धि या विवेक की कमी है तो यह कार्य संस्कार और सत्संग के माध्यम से होता है।

जब वह भी न हो तो परिणाम आप सोच सकते हैं। वैसे बुद्धि, विवेक, संस्कार और सत्संग, किसी न किसी सीमा में सभी में होते हैं। लेकिन मुख्य बात सोचने की है कि समय पर इनका response अर्थात प्रतिक्रिया का समय कम या ज्यादा होने पर शारीरिक व भावनात्मक प्रेम के द्वन्द में हार जीत होती रहती है। ऐसे समय में आत्मा से हमेशा सत्य वचन प्रेषित होते रहते हैं। जिनको पकड़ना बुद्धि का काम है। अंततः विवेक, बुद्धि के साथ मिल कर , मन को लगाम देता है, जो छवि के बनने बिगड़ने में उत्तरदायी है। 

अब सोचिये कि भावनात्मक प्रेम सौ प्रतिशत है। मीरा का जन्म अवश्यम्भावी होता है और कृष्ण भक्ति संसार को देखने को मिलती है।

दूसरी तरफ यदि शारीरिक प्रेम सौ प्रतिशत है, तो व्यभिचार, स्त्रियों के प्रति दुर्व्यवहार, दुराचार की पराकाष्ठा दिखती है। यह स्त्रियों में भी सौ प्रतिशत हो सकता है और उनका स्वरुप रम्भा और उर्वशी के रूप में देखने को मिल सकता है। वैसे ये पुरुष प्रधान इसलिए ज्यादा है क्यूंकि पुरुषों में इस क्रिया की, प्रतिक्रिया का समय (response time) बहुत तेज (fast) होता है और चरमोत्कर्ष पर वीभत्स रूप भी ले लेता है।

मानव जीवन में इन दो प्रेम स्वरूपों का संतुलन अनिवार्य है। संस्कार, सत्संग व समाज के उन्मुक्त निर्माण में सही सामंजस्य इसको संतुलन दे सकता है।

किसी वास्तविकता से मुँह मोड़ने से, वह बंद कोठरी में अपने स्वरुप को, अंधेरों में उजागर करने लगता है व एक दबी आवाज़ सी रह रह कर समाज को आती रहती है। इसलिए आवश्यकता है ऐसे प्रबंध  व्यवस्थाओं की जहाँ समाज में असत्य की पूजा  हो। असत्य को सिद्ध करने की बाजीगरी  की जाये। न ही ऐसे बाजीगरों को पनपने दिया जाये।

एक विशेष बात जो उत्प्रेरक का कार्य करती है वो है "एकांत"। यह कुछ धनात्मक दृष्टिकोण के लोगों को शक्ति प्रदान कर सकती है, लेकिन ज्यादातर को उच्छ्रंखल  बनाती है।

मैं अंत में निर्णय स्वरुप यही कहूँगा कि परोक्ष रूप से ज्यादातर प्रेम का अंतिम लक्ष्य शारीरिक संतुष्टि है जिसे सेक्स की  संज्ञा दी जाती है और ये वर्त्तमान समय में ज्यादा देखने को मिलता है। इसको समझने व सही दिशा देने का दायित्व समाज का है।

                                                ......... राजेश सक्सेना "रजत".  
25.12.12
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