Thursday 31 March 2011

रजत उवाच

तकलीफ में जो उनकी, हम आज काम आये,
रिश्तों की खाइयाँवो, अपने से पाट आये.

उम्मीद पर टिकी थीं, रिश्तों की बागडोर,
उम्मीद जब से छोड़ी, सबसे रिश्ते लहलहाए.

झाँका करें घरों में, फुर्सत तमाम जिनको,
कोसा करें वो सबको, अपनी कमी छुपाएं.

अपने सुखों की खातिर, बुजुर्गों को था निकाला,
उन स्वार्थी घरों में, भगवान बस पाएं.
उन स्वार्थी घरों में, खुशियाँ  कहाँ से आयें.

है कैफियत कुछ उनकी, दूसरों का घर जलाएं,
नासूर हैं ज़माने की, आधुनिक मंथरायें.

जिन औरतों ने पीहर को, तरजीह इतनी दी है,
माँ - बाप मर गए तो, ससुराल याद आये.

घटनाएँ जो घटें सब, सपनो से जोड़े जायें,
पूजा में जो कमी हो, ऐसे ही स्वप्न आयें.

कर लो मस्तियाँ तुम, शादी के आखरी दिन,
एक बार बंध गए जो, बंधन वो फिर निभाएं.

Wednesday 16 March 2011

चाँद के बालों का पक्ष - विपक्ष

जब से गंजा हुआ हूँ मैं,
बालों की चिंता करता हूँ.
बस हाथ फेर कर चाँद तुझे,
उस चाँद  से तुलना करता हूँ.

कुछ जगें उम्मीदें जीवन में,
जब कोई निहारा करता है.
कंघी को पास में रखता हूँ,
छुप - छुप कर फेरा करता हूँ.

वोह चाँद बदलता है प्रतिपल,
इस चाँद बने प्रतिबिम्ब सरल.
जब ढोल हो, कोई गीत गुने,
इस चाँद पे तबला बजता है.

उस चाँद का तो दीदार सभी,
कुछ उम्मीदों से करते हैं.
इस चाँद को सर - आखों पे बिठा,
हम जीवन यापन करते हैं.

हे स्रष्टि रचयिता सर - खेती में,
कुछ बीज नए बो डालो जी.
कुछ बजट में तुम प्रावधान करो,
कोई  टैक्स कभी डालो जी.

चल पढ़ें, ‘चरक’ की बातों को,
घर - चौके में मलहम ढूढें.
जब मिले जो फुर्सत कामों से,
अनुलोम - विलोम, सभी कर लें.

हे विश्व सुंदरियों! समझो तो,
ज्योतिष विद्या की बातों को.
बिन बालों के इस चाँद में तो,
सांसारिक सुख सब बसते हैं.

मत भागो उन सर-बालों पर,
तुम अर्थशास्त्र को मान भी लो.
बिन बालों के इस मर्द के तो,
बहुतेरे खर्चे बचते हैं.

Thursday 3 March 2011

वैलेंटाइन गीत - "तेरी आवाज़ को, सुनने को, मेरा दिल मचले."

तेरी आवाज़ को, सुनने को, मेरा दिल मचले.
खुली खिड़की से देखूं, बाग़ में तितली उड़े रे.

भाग कर मैं पकड़ लूं, करूँ मैं रंज फूलों को.
तेरे मखमल से, कोमल पंख को, छेड़ा करूँ रे.

जले मौसम हवाएं रूठ कर, बदनाम करती हैं.
तुझे पाकर, ज़माने के, गिले - शिकवे मैं सह लूं रे.

नहीं रखूंगा तुझको बाँध कर, चाहरदिवारी में,
खुला घर तेरी चाहत का, बनाऊँगा प्रिये रे.

Wednesday 2 March 2011

तुम्हारी गोद में हमने, कभी किलकारियां की थीं

यह कविता मैं, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ Technology , रूडकी को समर्पित कर रहा हूँ, जहाँ से मैंने १९८५ में विदुत अभियांत्रिकी में स्नातक की डिग्री २५ वर्षों पहले पाई थी


तुम्हारी गोद में हमने, कभी किलकारियां की थीं

अनूठी गंग - यमुना की, सहज संस्कृति में डूब कर
कभी पूरब पश्चिम, कभी उत्तर दक्षिण
सभी के संस्कारों की, हमने रूबाइयां पढ़ी थीं

तुम्हारी गोद में हमने, कभी किलकारियां की थीं

जो निकले थे घरों से, ज्ञान के गोते लगाने को
विज्ञान के अनुसन्धान से, संसार में क्रांति लाने को
सभी ने उस तपोवन में, यज्ञ में आहुतियां दी थीं

तुम्हारी गोद में हमने, कभी किलकारियां की थीं

कभी फल मीठा होता, कभी खट्टा भी होता था
ध्यान और धारणा के मर्म का, तब अहसास होता था
किया जब तप, हठ से मुश्किलें आसान होती थीं

तुम्हारी गोद में हमने, कभी किलकारियां की थीं

जो निकले तेरे दामन से, तो बिखरे कोने - कोने में
उगे पौधे, रजत वर्षों में पनपे, फलदार पेड़ों से
आज फिर नए बीजों की, हमने रोपाई भी की थी

तुम्हारी गोद में हमने, कभी किलकारियां की थीं