Monday 18 June 2012

“ए बनारस !”


 बनारस !
ही पहुँचा,
दर पे तेरे ........... द्वार खोलो ........... मुक्ति दे दो.

क्यों प्रलोभन,
साँझ बेला में दिखे हैं,
बुद्ध का कुछ ........... ज्ञान दे दो.

है ये काशी,
जिसकी काशी ........... वो स्वयंभू सो रहा है.
दिन चढ़ा है,
तप रही धरती है देखो,
भभकता वातावरण है.
तन बहुत विक्षिप्त है ........... कुछ छाँव दे दो.

इस दुपहरी नींद में सोता प्रभु मैं,
हे विश्व के तुम नाथ !
हर लो नींद मेरी ........... आँख खोलो.

शान्त कर मेरी क्षुधा,
हे अन्नपूर्णा ! ........... अन्न का भंडार खोलो.

तुलसी मानस गीत सुनते,
भज रहा मैं राम हनुमत,
बंदरों के भाव चंचल,
बंदरों सा मेरा जीवन.

एक गंगा !
चांदनी बिछती थी जिस पर,
कुछ काल पहले ........... आज धुंधली हो गयी है.
हो भले ही,
मैल तुझमें,
आरती हर रोज होती,
एक आशा मन बसी ........... तुम साफ़ होगी.
दिन फिरें,
है यही  दरकार ...........  सरकार ! मेरे.

भारत !
खिलखिला तू,
आत्म विश्वास से,
अध्यात्म से.
हो समर्पित विश्व को,
संवेदना से,
संचेतना से,
सम्प्रेरणा से,
संज्ञान से,
विज्ञान से,
सत्य से,
प्रकाश से,
अमरत्व से ........... ज्ञान की आधार काशी.

बनारस !
थे तपस्वी,
हैं तपस्वी,
दे तपस्वी.
भेज दे चहुँ ओर ........... सन्देश वाहक.
खुदा ! हे भगवन !  बनारस !

                                                                 राजेश सक्सेना "रजत"
                                                            26.05.12 (बनारस) Afternoon


Friday 8 June 2012

"गीत"


गुनगुना रहा है कोई, दूर उस तरफ.
खुशनुमा माहौल है, दूर उस तरफ.

वादियों में रंग हैंचटक चटक से,
बादलों का संग है, दूर उस तरफ.

झरने जो गिर रहेदेते फुहार,
भीग रहा कोई, दूर उस तरफ.

सूरज भी ढ़लने लगा, शाम हो चली,
टिम टिम करे हैं तारे, दूर उस तरफ.

रातों को चाँद जैसेछत पर चढ़ा,
हँसने लगी है रात, दूर उस तरफ.

पलकों को नींद दे, सोन की परी,
थका कोई सो रहा, दूर उस तरफ.

नदियों की कल-कल से, नींद खुल रही,
सूरज संग लालिमा, दूर उस तरफ.


राजेश सक्सेना रजत
       13.01.12