Saturday 28 April 2012

"खूबसूरत ग़ज़ल"

बहुत खूबसूरत, ग़ज़ल लिख रहा हूँ
तुम्हें पढ़ रहा हूँ, गज़ब लिख रहा हूँ.

है उम्दा नज़रिया, है संजीदगी भी,
है मखमल में लिपटीबहर लिख रहा हूँ.....

जो गाया वज़न दर वज़न हुस्न तेरा,
वो मिसरी सा मिसरा, सुखन लिख रहा हूँ.

तेरी गूंगी बोली छुपा काफिया है,
अलिफ़ में सजी एक नज़र लिख रहा हूँ.

रदीफ़ ए रवानी बहुत लुत्फ़ आता,
जवाँ दिल क़यामत कहर लिख रहा हूँ.

जो मतले से मचली जवानी दिवानी,
है मकते पे सजती ठहर लिख रहा हूँ.

मुकम्मल इबादत खुदा की इनायत,
है हर शेर पुख्ता ज़हन लिख रहा हूँ.

                                            ………………. राजेश सक्सेना "रजत"
                                                                               02.02.12
                                                                                 

Sunday 15 April 2012

"किसान"

जब श्वेत यामिनी चमक रही,
रह-रह कर गगन समुन्दर में.
कितना चिंतित, कितना अविचल, कितना निष्प्राण, किसान खड़ा,
अपने हरे भरे और पके हुए, खेतों और खलिहानों में.

रह-रह कर आते सत्कर्म असंख्य,
स्मृतियों के अंगारों से,
कितनी आशाओं से था वो,
फल पाने को सन्दर्भों से,
पर,
कितना निष्प्राण, किसान खड़ा था, देख रहा,
उन पके हुए, खेतों और खलिहानों से.

जब हरड-हरड जब घरड़-घरड़,
उमड़े थे बादल सिर ऊपर,
जब वायु थमीबदरा काली,
टक-टकी लगाये घर ऊपर,
कितना निष्प्राण किसान खड़ा था, देख रहा,
उन पके हुए, खेतों और खलिहानों पर.

जब टप-टप करता घन बरसा,
ले चला खेत खलिहानों को,
देवी प्रकोप गुन निकल पड़ा,
मंदिर, गिरजा, गुरद्वारों को,
कितना निष्प्राण, किसान खड़ा था, देख रहा,
जर्जर होते उन पके हुए, खेतों और खलिहानों / अरमानों को.

विज्ञानं पला जब तन-मन-धन से,
शहरों की शालाओं में,
विध्वंस मचा पृथ्वी के ऊपर,
बरसा था क्रोध बहारों में,
कितना निष्प्राण, किसान खड़ा था, देख रहा,
उन पके हुए, खेतों और खलिहानों पर.

कितने प्रयत्न से सींचा था,
अपने बंजर अंतर्मन को,
निष्प्राण बहा था धारा में,
जब देखा बाहर-अंतर को,
कितना निष्प्राण, किसान खड़ा था, देख रहा,
बहते, कटते, उन पके हुए, खेतों और खलिहानों को.

कैसे रोकूँ उस शीत पवन को,
कैसे थामूँ उन बूंदों को.
कैसे काटूं अपनी फसलों को,
था गणित लगाता वेदों को,
कितना निष्प्राण, किसान खड़ा था देख रहा,
नम आँखों से, उजड़े-उजड़े, खेतों और खलिहानों को.
इतर,
जिसने जिसने ऋतु पहचानी थी,
पहले ही काटा फसलों को,
पहुँचाया था अपने घर को,
पाया था लक्ष्य उसी पल को,
कितना प्रसन्नचित्त घर बैठा था,
अनभिज्ञ मात्र  दुष्कर्मों को,

जब समय तुम्हारे वश में हो,
तन-मन पर अंकुश रखते हो,
कितना असाध्य हो लक्ष्य सामने,
एक दिन जीवन में पाते हो,

किसान !
कितना सच्चा जीवन है वो?
फल कैसा भी उसने पाया हो,
तन-मन से फिर है जोत रहा,
अपने ही घर में खेतों को.

राजेश सक्सेना "रजत"
         20.05.1990