Thursday 21 April 2011

गीत – “मैं, पिया रंग डूब गई”

मैं, पिया रंग डूब गई,
मैं, पिया रंग डूब गई.

जब साजन को खीर दियो,
चीनी डालन भूल गई.

मैं, पिया रंग डूब गई.

जब मैं लाल, लाल रंग राची,
सुध बुध खोय दई.

मैं, पिया रंग डूब गई.

जब मैं लिखूं, कछुअपने पिया पर,
लिखना भूल गई.

मैं, पिया रंग डूब गई.

जब मैं लजा के उनसे भिड़ी,
तब मटकी फूट गई.

मैं, पिया रंग डूब गई.

सास ससुर के पैर जो पूजे,
पल्लू लेना भूल गई.

मैं, पिया रंग डूब गई.

जब मैं सखी सब बात बताऊँ,
जीभई काट लई.

मैं, पिया रंग डूब गई.

Tuesday 19 April 2011

भजन – “बहुत ही भोले हैं हनुमान”

बहुत ही भोले हैं हनुमान,
बहुत ही चंचल हैं हनुमान.

मुख मंडल सब भाव विदित हैं,
भक्ति का देते हैं ज्ञान.

अष्ट सिद्धि, नव निधि सब पावें,
जो सुमिरें हनुमान.

माँ सीता की व्यथा भायी,
मुदरी दी, अंकित था राम.

भूख लगे तो बाग़ उजाड़ें,
जलातेलंका का अभिमान.

औषधि जो वो ढूंढ़ पावें,
उठालेंपर्वत को, बलवान.

Tuesday 12 April 2011

भजन - “मम हृद, जन्मो हे श्री राम!”


मम हृद, जन्मो हे श्री राम!
बसो मेरी काया में श्री राम.

नैनों को प्रभु राम दरस हों,
कानों में गूंजें राम.

सांसों में हे राम बसो तुम,
मुख संस्कृति में राम.

रोम-रोम अभिराम समाय,
स्थिर हो मन राम.

बुद्धि विवेक राम रचि राखा,
नतमस्तक मैं राम.

Friday 8 April 2011

अन्ना हिन्दोस्तान हो गए

अन्ना की अनहोनी बातें,
अन्नपूर्णा अन्ना जानें.

अनन्नास से मीठे अन्ना.

इक अन्ना, दो अन्ना, तीन अन्ना, चार अन्ना, हज़ार अन्ना
या यूँ कहें "अन्ना हजारे".

अंडरटेबल में भी 'अन' है,
अनवांटेड पॉलीटीशियंस में भी.
अनअर्थड करो तुम अन्ना,
अनअर्थड करो तुम सबको,
अनकमफ़र्टएबल पॉलीटीशियंस जो भी,
अनुत्तरित पॉलीटीशियंस जो भी.

कल तक जो, अंतर्यामी, बनते थे,
आज अंतर्ध्यान हो गए.

अन्नकूट का आटा खा कर,
कुछ  तो अंतिम साँस चढ़ गए.

अनहद नाद.

"आटे बाटे दही चटा के
अन्ना आ गये, खाओ बताशे"

अनगिनत.

अंधड़ चला भारत में

अनकहा,
अनदेखे.
अनदेखा,
अनकहे.

अनुलोम नहीं विलोम.

अनबुझी,
अंकित,
अंतरात्मा का अन्वेषण.

अनकही,
अंतर्कथा,
अंधविश्वास की.
अनुसन्धान से,
अंतरिक्ष में छोड़ कर.

अन्तःकरण,
अनभिज्ञ  था.

अनुसरण,
अनुबंध कर.

अंत भला तो सब भला.

अँधा,
अंधियारे उजियारा हुआ.

अनुमोदन.
अनुप्रिया.

अंततः,

अनुष्ठान,
अन अपेक्षित.

अन्ना तुम भगवान हो गए.
अन्ना हिन्दोस्तान हो गए.

Monday 4 April 2011

लक्ष्य-पथ (टीम इंडिया को समर्पित)

यह कविता मैं, टीम इंडिया को समर्पित कर रहा हूँजिसने  02.04.2011 कोएक दिवसीय क्रिकेट विश्व कप जीत कर हम सभी भारतीयों को गौरवान्वित किया - प्रस्तुत है उनकी सफलता का सफ़र:

            लक्ष्य को सामने रख कर, जो मैंने पथ चुना था,
            था कठिन, फिर भी, मैं, उस पर, चल पड़ा था.

1.         उससे पहले, कौंधते थे, कानों में, कटाक्ष सारे.
उँगलियाँ उठतीं, कहीं थे, प्रश्न न्यारे.
सोचता / विचलित मैं होता, कुछ सही, कुछ गलत पाता.
आत्मा को कष्ट होता / खीझ भरती, मन ही मन, घुटता मैं जाता.

आज जीवन मोड़ पर, कुछ यूँ खड़ा था,
पाई थी मैंने चुनौती, मन लिया संकल्प था.

लक्ष्य को सामने रख कर, जो मैंने पथ चुना था,
था कठिन, फिर भी, मैं, उस पर, चल पड़ा था.

2.         प्रण के बाहुपाशों से, मन को था रोका.
पीछे खड़ी, विषकन्या को, मुड़कर देखा.
कानों में, मैं, पथ के, मद्धम गीत गाता.
सांसों की सरगम को मैं सुन्दर बनाता.

योगियों सा भाव अबछाने लगा था,  
धुन में रहता, पथ में रस, आने लगा था.

लक्ष्य को सामने रख कर, जो मैंने पथ चुना था,
था कठिन, फिर भी, मैं, उस पर, चल पड़ा था.

3.         घूमती / नाचती थीं, सामने मेरे कलाएं.
तुम भी, कुछ कोशिश करो / कुछ सीख लो, अपने बुलाएं.
सामने, पुस्तक खुली, पढ़ता, मैं जाता,
जो हो रहा था / आस-पास, योगियों सा, देखे जाता.

मन को, मेरा पथ, सुगम लगने लगा था,
अब धमनियों के रक्त से, मेरा हृदय दूषित नहीं था.

लक्ष्य को सामने रख कर, जो मैंने पथ चुना था,
था कठिन, फिर भी, मैं, उस पर, चल पड़ा था.

4.         सुन के आदर्शों को, मैंने साधना की,
नित नियम, संकल्प लेकरप्रार्थना की.
जैसे-जैसे दृढ़ता से, मैं प्रण निभाता,
आत्मा का और भी, सानिध्य पाता.

सुदूर मेरा लक्ष्य अब दिखने लगा था,
मैं, मोतियों सा अब, ककहरा, लिखने लगा था.

लक्ष्य को सामने रख कर, जो मैंने पथ चुना था,
था कठिन, फिर भी, मैं, उस पर, चल पड़ा था.

5.         क्या पितृ-ऋण, क्या मातृ-ऋण, सबको नमन कर,
ऋषियों-मुनियों, ज्ञानियों के, चरणों में झुककर.
साधना के साधनों और, माध्यमो संग,
विद्वेष हृदय से निकालूँ, पाकर मैं सत्संग धन्य.

सबका आशीर्वाद अब, मिलने लगा था,
पथिक के, पथ के अंधियारे, में, नया सूरज उगा था.

लक्ष्य को सामने रख कर, जो मैंने पथ चुना था,
था कठिन, फिर भी, मैं, उस पर, चल पड़ा था.

6.         सब अचंभित, देखकर, गुणगा गाते,
तुम ही थे कल के कुपुत्र, सुपुत्र बन उनको हो भाते.
सौम्य अब चेहरा, तेरा, लगने लगा है,
सबके मन में, आशा का, एक दीप, जला है.

गए तुम लक्ष्य को, तुमने था सोचा,
ईश ने उस पल दिया, उपहार सच्चा.

लक्ष्य को सामने रख कर, जो मैंने पथ चुना था,
था कठिन, फिर भी, मैं, उसको पा गया था.