Thursday 31 March 2011

रजत उवाच

तकलीफ में जो उनकी, हम आज काम आये,
रिश्तों की खाइयाँवो, अपने से पाट आये.

उम्मीद पर टिकी थीं, रिश्तों की बागडोर,
उम्मीद जब से छोड़ी, सबसे रिश्ते लहलहाए.

झाँका करें घरों में, फुर्सत तमाम जिनको,
कोसा करें वो सबको, अपनी कमी छुपाएं.

अपने सुखों की खातिर, बुजुर्गों को था निकाला,
उन स्वार्थी घरों में, भगवान बस पाएं.
उन स्वार्थी घरों में, खुशियाँ  कहाँ से आयें.

है कैफियत कुछ उनकी, दूसरों का घर जलाएं,
नासूर हैं ज़माने की, आधुनिक मंथरायें.

जिन औरतों ने पीहर को, तरजीह इतनी दी है,
माँ - बाप मर गए तो, ससुराल याद आये.

घटनाएँ जो घटें सब, सपनो से जोड़े जायें,
पूजा में जो कमी हो, ऐसे ही स्वप्न आयें.

कर लो मस्तियाँ तुम, शादी के आखरी दिन,
एक बार बंध गए जो, बंधन वो फिर निभाएं.

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