सुनो!
तुम बहुत छोटे से थे.
मगर भारी थे.
गदराया बदन था.
हर समय मैं तुम्हें अपने
पास रखता था. खाते, पीते, सोते, उठते.
तुम्हारी अठखेलियाँ ....
बारीकियाँ, धीरे – धीरे समझ आती चली गयीं.
तुमने मुझे अपनों के नज़दीक
ला दिया.
मेरे गोलू बोलू.
कितनी बार लड़खड़ाए. मगर मजाल
है कुछ हो जाये तुमको. चींटी मरा करती थीं.
मेरे प्यारे Qwerty.
तीज त्योहार के रिश्तों के
पुल.
जैसे जैसे बड़े हुए.
तुम्हारे अन्दर कितने परिवर्तन देखे. बदन फ़ौलादी से प्लास्टिक में बदलता दीखा.
आकार बढ़ा, मगर हलके हो गए तुम.
तुम्हारी reach विश्व के हर
कोने तक हो चली. बेतार ज़िन्दगी में नई कल्पनाएँ भर दीं तुमने.
कभी कभी nostalgic हो जाया
करते थे तुम.
और समय बदला. उम्र के साथ
रंगीन हो गए तुम.
तुम्हारा चेहरा बड़ा दिखने
लगा.
अब तोतली भाषा के बजाए अपनी
मातृ भाषा में बोलने लगे .
तुम चलायमान दिखने लगे.
आँखों देखा हाल कोई पाए तो
तुमसे.
मेरे नरोत्तम पुरी थे तुम.
मेरे जसवंत सिंह बन गए.
मेरे लिए जगजीत / लता बन
गए.
तुम्हारी अच्छाईयाँ /
बुराईयाँ बस मेरे mood के हिसाब से दिखने लगीं.
हर समय तुम्हारा साथ इतना
अच्छा लगने लगा कि अपनों से दूर रहने लगा.
मृगमरीचिका के पीछे भटकन
ऎसी हुई कि फिर से रावण सीता को हरने लगा.
अब बताओ उम्र के इस दराज़
में, किस नए रूप में दिखोगे हमें.
क्या हमें तुम अकेला करोगे
सभी से, या फिर, धरती से, अपनों से जोड़ोगे तुम.
मेरे मोबाइल. क्या ये
इन्तिहाँ है तेरी. क्या ये इन्तेकाम है तेरा.
बता दे, तो मैं संभल जाऊं.
काम छूटे हैं जो. उनको कर
पाऊं.
........ राजेश सक्सेना
“रजत”
10.07.15
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
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