यह कविता मैं, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ Technology , रूडकी को समर्पित कर रहा हूँ, जहाँ से मैंने १९८५ में विदुत अभियांत्रिकी में स्नातक की डिग्री २५ वर्षों पहले पाई थी
तुम्हारी गोद में हमने, कभी किलकारियां की थीं
अनूठी गंग - यमुना की, सहज संस्कृति में डूब कर
कभी पूरब औ पश्चिम, कभी उत्तर औ दक्षिण
सभी के संस्कारों की, हमने रूबाइयां पढ़ी थीं
तुम्हारी गोद में हमने, कभी किलकारियां की थीं
जो निकले थे घरों से, ज्ञान के गोते लगाने को
विज्ञान के अनुसन्धान से, संसार में क्रांति लाने को
सभी ने उस तपोवन में, यज्ञ में आहुतियां दी थीं
तुम्हारी गोद में हमने, कभी किलकारियां की थीं
कभी फल मीठा होता, कभी खट्टा भी होता था
ध्यान और धारणा के मर्म का, तब अहसास होता था
किया जब तप, हठ से मुश्किलें आसान होती थीं
तुम्हारी गोद में हमने, कभी किलकारियां की थीं
जो निकले तेरे दामन से, तो बिखरे कोने - कोने में
उगे पौधे, रजत वर्षों में पनपे, फलदार पेड़ों से
आज फिर नए बीजों की, हमने रोपाई भी की थी
तुम्हारी गोद में हमने, कभी किलकारियां की थीं
good one
ReplyDelete१९८५ में विदुत अभियांत्रिकी में स्नातक की डिग्री २५ वर्षों पहले पाई थी
ReplyDeleteI think I have forgotten hindi :)
Thanks Radha, for appreciating the poem.
ReplyDeletePrashant its not that you have forgotten Hindi. Its only a fact that you have not practiced since long. Keep yourself involved. Thanks.
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