Tuesday, 20 December 2011

“खाड़ी युद्ध”

(This poem was written in the backdrop of “खाड़ी युद्ध”)

ये युद्ध की विभीषिका,
ये गर्जनाये तर्जना,
ये सामदाम, दंड, भेद,
ये शक्ति का, प्रचंड वेग,
ये आह कैसी उठ रही,
जय गीत कोई गुन रहा,
क्यों इर्ष्या मचल रही,
अधर्म छटपटा रहा,
है रक्त दोष आज फिर,
वीभत्स रूप ला रहा,
समष्टि, संविधान सब,
बिखर रहेअरण्य से,
मनुष्यता मनुष्य की,
पुरुषत्व डगमगा रहा.

                                    राजेश सक्सेना "रजत"
                                              1990-91


2 comments:

  1. ये आह कैसी उठ रही,
    जय गीत कोई गुन रहा,
    क्यों इर्ष्या मचल रही,
    अधर्म छटपटा रहा,.....Waah kya varnan kiya hai....kya feelings hain...Sunder

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  2. रजत जी आपने ये रचना खाड़ी युद्ध के समय लिखी परन्तु इसके भाव और शब्दावली आज के परिपेक्ष में भी उतने ही उपयुक्त हैं .....पूनम

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