दिन चढ़ रहा है. ग्यारह बजे हैं और मैं पंजाबी बाग़ में घूमता हुआ, किसी बाग़ की तलाश में हूँ. आषाढ़ मास, शुक्ल पक्ष, चतुर्दशी है. तपती दुपहरी में तीन से साढ़े तीन घंटे यूँ ही गुजारने हैं. बेटा भविष्य निर्माण की प्रक्रिया में तीन घंटे तक परीक्षारत रहेगा. मैं भी यूँ ही समय के साथ वक्त गुजारूँगा.
बस मिल ही गया एक उपवन. उसमें ढूँढा सबसे घना पेड़ और चबूतरे पर जमा ली चड्ढी.
साढ़े ग्यारह बजे हैं. संचार यंत्र से जीवन के कण्ट्रोल रूम को सूचना प्रेषित कर दी है. मौका-ए-हालत का जायज़ा दे दिया है.
एक नौज़वान का सवेरा हो चला है. Walkway पर दौड़ उसकी शरू हो गयी है, जो एक चक्कर के बाद कदमताल में तब्दील हो गयी है.
एक बिल्ली दबे पाँव लगता है शिकार की तलाश में घूम रही है. उसकी सेहत से यह अंदाज़ा जरूर मिल रहा है की वह फुर्तीली है और शिकार उसे रोज मिलते हैं.
मेरे ही तरह कुछ और लोग भी जगह खोजते हुए आ गए हैं.
अरे यह क्या, एक और नौजवान Walkway पर धीमी गति से टहलता हुआ कान में कुछ खोंचे हुए, अपने में ही बतियाते हुए, धूप का आनंद ले रहा है. शायद पेंगें बढ़ाने की यही आधुनिक सुरक्षित परंपरा है.
कॉपी या पुस्तिका मैं साथ लाया नहीं. लिखने का मन चर्राने लगा तो अख़बार के हाशिये व बदस्तूर आड़ी गलियों में कलम निकाल कर लिखने लगा हूँ.
चिड़ियों की चहचहाट, कोयल की कूक, अंजान पक्षियों की कुछ आवाजें ध्यान आकर्षित कर रही हैं.
पास के मकानों में छेनी-हथौड़ी की मार, टाइल्स की घिसाई व कटाई का संगीत सुनाई दे रहा है.
वाह, प्रिय गिलहरी की आवाजें भी आ रही हैं.
सर उठा के देखा, तो जामुन के पेड़ के नीचे बैठा पाया. बहुत छोटे-छोटे फल, जो अभी भुने चने के दाने की तरह दिख रहे हैं, बता रहे हैं कि बारिश आने में अभी कुछ देर और है. पंद्रह दिन, यह मेरा अनुमान है. मौसम विभाग की तो वह ही जाने. उसे अपनी भविष्यवाणी संभल कर देनी होती है. पता नहीं दलाल पथ पर क्या प्रतिक्रिया हो जाये.
बगिया में फूल की कमी है. लगता है आज के समाज से रंग बहुत दूर चला गया है.
एक बूढ़ा व्यक्ति पैंट-कमीज़ में, स्पोर्ट्स शू पहने, एक पिट्ठू बैग, एक पानी कि बोतल लिए, चबूतरे पर तशरीफ़ लाया है. दाढ़ी सफ़ेद बढ़ी हुयी, अख़बार पर हाशिये पर छपे, बाबा नागार्जुन की छायाप्रति से मिलता जुलता है कल ही तो उनकी जन्मतिथि थी. 30 जून को, 101 वर्ष हो गए.
एक मित्र ने फेसबुक पर, कल उन का जीवन वर्णन, एक कविता के साथ लिखा था और कुछ अन्य मित्रों ने भी उनकी कुछ कविताओं को उद्ध्रत किया था. बड़ा आनंद आया.
आज सुबह अख़बार में "बोधिसत्व" की लिखी, उनको समर्पित कविता "स्वाहा" बहुत अच्छी लगी.
हवा और गर्म हो चली है. लो बारह बज गए.
अपने पिट्ठू बैग से पानी निकाल कर पिया. गर्मगर्म.
सोचता हूँ ये चिड़ियाँ भी, जब घर की छतों पर, टूटे मटके में, खुले में रखे पानी को पीती होंगी, तो ऐसा ही स्वाद आता होगा. गर्म गर्म.
संचार यंत्र फिर टनटना उठा. कण्ट्रोल रूम ने स्थिति का जायज़ा लिया व दिशा निर्देश जारी हुए कि अपने को लू से बचाएं. तुरंत टैक्सी में बैठ कर पास के किसी मोहल्ले के मॉल में air conditioned माहौल का रुख करें.
आदेश पालन परमो धर्मः - आज का आम सूत्र.
यह सोचते हुए कदम टैक्सी कि तरफ़ बढ़ चले कि चिड़ियों को लू क्यूँ नहीं लगती है. वे भी तो इसी माहौल में खुले पार्क में चहचहा रही हैं. चलो कभी प्रोफेसर यशपाल से मिले तो यह सवाल जरूर पूछेंगे.
कुछ ही देर में हम मॉल संकृति में प्रवेश कर गए.
राजौरी गार्डन. अहा, यह भी गार्डन है.
मॉल गार्डन एक के बाद एक-एक.
सोचा क्या करूँ.
कुल्फी खाई.
सभी मॉल में जहाँ-जहाँ किताबें रखी थीं, गया. हिंदी किताबों के बारे में जानना चाहा. सेल्समेन एक दूसरे से पूछते दिखे. प्रतिशत के तौर पर, एक से दो प्रतिशत किताबें हिंदी में थीं और जो थीं भी वह रुचिकर नहीं थीं.
बस एक ही बात हिंदी प्रकाशकों से कहना चाहूँगा कि जो दीखता है वो बिकता है. Bring a Change.
दुबारा फिर प्यास लगी. कोल्ड ड्रिंक पी ली.
उसी स्टॉल पर बैठ कर लिखने लगा.
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