छोटा सफ़र था मेरा, सब काम कर चुका था,
हर पल को जी के मैं तो, आराम को रुका था।
आगे की जिंदगी भी, मदमस्त होगी यारों,
ऐसे करम हैं मेरे, कुछ भी नहीं फुका था।
क्यूँ स्वाद के लिए हम, उड़ते जमीं को छोड़े,
मेरा करम तो यारों, उबला हुआ छुका था।
जो घर की कोठरी के, दरीचों को खोल रक्खा,
सर फक्र से था ऊँचा, तालीम में पका था।
सोहबत बला की रक्खी, अपनों की थी नसीहत,
रहम-ओ-करम था उसका, उसकी तरफ झुका था।
वह दोस्त मेरा हरदम, खेले था दाँव पेंचें,
दो चार करते करते, आख़िर में जा ठुका था।
................ राजेश सक्सेना "रजत'
21.11.12
अच्छी लगी....
ReplyDeleteवीना जी,
Deleteप्रशंसा के लिए कोटि कोटि धन्यवाद।
सादर।
http://bulletinofblog.blogspot.in/2012/12/2012-6.html
ReplyDeleteरश्मि प्रभा जी,
Deleteबहुत बहुत धन्यवाद।
सादर।