Monday 25 February 2013

ग़ज़ल – “मैं अभागा हूँ नहीं खुद को समझता हूँ”

मैं अभागा हूँ नहीं खुद को समझता हूँ,
कोशिशें कुछ भी नहीं की बस तरसता हूँ।

आलसीपन कूटकर मुझमें भरा है बस,
मिले कुछ, खीझ कर, सब पर बरसता हूँ।

आबोदाना इस जहाँ में बस चले कुछ यूँ,
दूसरों की मेहनतों पर ऐश करता हूँ।

सब बियाबाँ जंगलों को खाक कर दूँ अब,
इसलिए मैं आग सा अब तो दहकता हूँ।

है गुफा के छोर पर कुछ रौशनी दिखती,
उसको पाने को अँधेरों में टहलता हूँ।

जब कभी कड़वाहटें रिश्तों में मैं देखूँ,
काम सारे छोड़ उन पर काम करता हूँ।

एक आँगन की कली को ब्याह कर लाया,
सारा जीवन उस कली के संग महकता हूँ।

सब सियासतदान बस घबरा  गए हैं अब,
जब से उनकी गलतियों को याद रखता हूँ।

दहशतों से अब नहीं डरता है हिन्दोस्ताँ,
और फौलादी इरादों संग जो बढ़ता हूँ।

..................  राजेश सक्सेना "रजत"
                                         25.02.13 

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