Wednesday 20 July 2011

“मेरी माँ के गिल्लू”

महादेवी वर्मा की जन्म भूमि से जुड़ा होना, किसी भी व्यक्ति के लिए सौभाग्य से कम नहीं है. जब भी इस तथ्य का अहसास मन में होता है, मन रोमांचित हो जाता है. प्रेरणा से पाँचों इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं.

यही धनात्मक दृष्टिकोण गति देता है जीवन को, हमारे कर्मों को.

जैसे ही कार्य छेत्र में कदम बढाया, अपने को उस माटी से जुड़ा पाया. पुश्तैनी मकान. लखैरी ईंट. दो-दो फुट चौड़ी दीवारों से बना पुश्तैनी मकान. मेरे पिता जी की जन्मस्थली. तमाम खुशियों की गवाह. छतों पर  धन्नियाँ, मजबूत बुनियादें. सभी बयाँ करती थीं, उस घर की यादें. घर के आंगन में नीम का बहुत पुराना पेड. उस पर लगते सावन में झूले. झूले की पेंगें और बहना के लोकगीत, मन के किसी कोने में बसते से जाते -

"बाबा जी के बाग़ में, दो चिड़ियाँ चूँ-चूँ करती थीं,

उधर से आये लोकू भैया, क्या क्या सौदा लाये हैं.
आप को घोडा, बाप को घोडा,
बहन की चुनरी भूल आये,
सौ-सौ नाम धराये थे."

लोकगीतों की मिठास के साथ रेडियो का विविध-भारती प्रोग्राम. भौजी की उस पर बातें. थोड़ी चुहलथोड़ी तानें. चाहे होली या दिवाली. चाहे और कोई त्यौहार. बजता जरूर था, लोक गीतों का संसार -

"प्यारे नंदुईया, सरौता कहाँ भूल आये."

या,

"दोना आले में धरो है, भाभी खालो रबड़ी"

वगैरह- वगैरह.

जैसे दिन बीते, बिछुड़े बुजुर्ग सभी एक एक कर. बचे अब, जीवन में, कुछ अजीबोगरीब साथी. माँ बाप को हैं प्यारे, वो अनोखे सितारे.

पानी की तलाश में, भटक आते बन्दर.
उछलते और कूदते, वो लांघें समुंदर.

चुपके से दबे पाँव, आती थी बिल्ली.
जो मिल जाये खाना, दबे पाँव जाती थी बिल्ली.

उन्हीं सब में प्यारा, है, एक साथी.
नीम की टहनियों पर, सरपट भागे, दौड़ी.
कभी पल में नीचे, कभी पल में ऊपर.
कभी द्वार पर चूँ-चूँ चहके गिलहरी.

जब हुई दोपहर, माँ लगी भूख हमको.
भिक्षाम देहि, पुकारा करे वो.

जो, माँ, हमारी, देती थीं रोटी.
रोटी नहीं तो, चले डबलरोटी.
वो छोटे-छोटे टुकड़े, उठा कर के हाथों.
कुतरा करे थीं, वो रोटी पे रोटी.

कभी टुकुर-टुकुरज़ल्दी में देखें.
कभी भागेंठहरें, ठिठक कर फिर देखें.
बड़ी खूबसूरत हैं, दिखती सयानी.
दिखे उनकी पीठों पर, त्रिदेवों की निशानी.

वो लम्बी सी घनी, उनकी उजली सी पूँछें.
हिलाएँ वो ऐसे, जैसे कुशल छेम पूँछें.

कितने प्यारे-प्यारे वो मेरी माँ के दुलारे.
बुलाया करें हम उनको आदर से गिल्लू.
मेरी माँ की आँखों के तारे हैं गिल्लू.
मेरी माँ के सहारे हैं गिल्लू.

हमसे अच्छे उनके कर्मों की फेहरिश्त.
वरदहस्त बड़ों का और जीवन है उन्मुक्त.

बजता किए, रेडियो पे जो गाना - "बहुत खूबसूरत है ये जिंदगानी…….."

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