कदम रखा,
आज मैंने,
जवानी की दहलीज़ पर.
उधर से आवाज़ आई,
कोयले की कोठारी में, जितनो भी सयानो जाये,
कालिख लगे न लगे, संत वो न कहलाये.
मैंने सोचा.
सब बकवास.
मैं ठीक, मेरा वजूद ठीक.
थोड़ी मस्ती, थोड़ी मौज, सब पुण्य.
पर मैं बेचारा, दोस्ती का मारा.
जिज्ञासा,
एक के साथ एक मुफ्त.
कहानियाँ, कथाएँ, रिपोर्ताज, किताबें, एस. एम. एस. / एम. एम. एस.,
मोबाइल जोक्स, गणक, इन्टरनेट और गप्पों के बाज़ार,
गाने – बजाने,
24 x 7 मेरे साथी.
मैंने सोचा,
चलो कुछ मीठा हो जाये.
टेढ़ा है पर मेरा है,
यह अन्दर की बात है.
बाकी सब,
जनरेशन गैप.
जो फिसला.
पाया अलग - थलग,
मैं बन गया,
कहानियाँ, कथाएँ, रिपोर्ताज, किताबें, एस. एम. एस. / एम. एम. एस.,
मोबाइल जोक्स, गणक, इन्टरनेट और गप्पों के बाज़ार,
गाने - बजाने,
24 x 7 मुझे लगे सताने.
मैंने सोचा,
जैसी करनी, वैसी भरनी.
मेरे अपने, रिश्ते नाते,
मेरी संस्कृति का आधार.
फिर चलो,
लिख लें कहानी,
मंदिरों से, घर के आँगन,
अपने संस्कारों की.
देखता हूँ, पीछे मुड़कर,
नयी फसल, आँधी में उलझी,
मस्त हो मंडरा रही.
मैं सहेली, अपनी बन,
अपनों की दुनिया में,
नए गीत गा रही.
सुन्दर ख्याल्।
ReplyDeleteयह तो बहुत ही सुन्दर है ...
ReplyDeleteज़िन्दगी का एक सत्य है
जीवन के उस समय मैं जब हम जवानी मैं क़दम रखना शुरू करते हैं (Adolescent age)..ग़लतियाँ करते हैं ,फिसलते हैं ,फिर सही राह पर आते हैं ...
उसके बाद आने वाली नई पीढ़ी को देख के मंद मंद हँसते हैं ...
बहुत अच्छी कविता थी.
वंदना जी, कविता पसंद करने के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteसंकल्प, आपने कविता के सार को अपने शब्दों में रख दिया है. यही वास्तविकता है. बहुत अच्छा लगा. धन्यवाद.
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